s Swami Keshwanand Samiti Charitable Trust

स्वंत्रता आन्दोलन में भाग

सन् 1907 में साधु केशवानन्द ने समाचार-पत्रों को पढ़ना प्रारम्भ कर दिया था जिनमें प्रायः देश की स्वतंत्रता की चर्चा रहती थी। उनके मन में भी स्वतंत्रता-आंदोलन में भाग लेने की इच्छा जागृत हुई। सन् 1921 में वे गांधीजी के आह्वान पर असहयोग-आंदोलन में शामिल हो गए। वे आर्य साधुओं की भाँति जोशीले भाषण देते थे, इसलिए वे स्वामी केशवानन्द के नाम से पुकारे जाने लगे। पुलिस द्वारा उन पर अंग्रेजी सरकार विरोधी भावनाएँ भड़काने का दोषारोपण किया गया। अन्य आंदोलनकारियों के साथ उन्हें भी गिरफ्तार करके अंग्रेज मजिस्टेªट के सामने पेश किया गया। मजिस्टेªट माफी माँग लेने वाले आंदोलनकारियों को छोड़ रहा था। मजिस्टेªट ने स्वामी जी से पूछा कि क्या वे माफी माँग कर छूटना चाहेंगे। स्वामी जी का सहज उत्तर था कि यदि मुझे बिना माफी माँगे भी छोड़ दिया जाए तो मैं पुनः आंदोलन में ही शामिल होऊँगा। इस उत्तर पर उन्हें दो वर्ष की जेल की सजा भुगतनी पड़ी। सन् 1930 में वे पुनः देश की पूर्ण स्वतंत्रता के संदेश के प्रचारार्थ फिरोजपुर जिले के स्वतंत्रता-आंदोलन के डिक्टेटर बनाए गए। उन्होंने उत्साहपूर्वक आंदोलन की बागडोर सम्भाली और वे आंदोलनकारियों का एक दल गठित कर अंग्रेजी राज्य के विरुद्ध गाँवों में धुआंधार प्रचार करने लगे। उनकी संगठन कुशलता को देखकर स्वतंत्रता सेनानियों के क्रांतिकारी दल ने भी स्वामी जी को अपने दल में सम्मिलित करने का प्रयत्न किया । स्वामी जी का उन्हें उत्तर था, ‘‘मुझे देश से पूरा प्यार है, मैं इसके लिए बलिदान भी दे सकता हूॅं, मैं कठिनाई से डरता भी नहीं हूँ और आपके दल के प्रति भी मेरे मन में पूरा सम्मान है, पर मेरी एक दुविधा है, वह यह कि मैं सच ही कह पाउँंगा, कोई बात गोपनीय न रख सकूंगा, और किसी प्रकार की हिंसा भी मुझसे न होगी।’’ उनका यह उत्तर सुनकर फिर कभी क्रांतिकारियों ने उनसे कोई वास्ता नहीं रखा। स्वामी जी के दल के प्रचार-कार्य में अड़चन डालने में पुलिस वालों की कोई चाल सफल नहीं हो पाती थी, अतः वे अपने पूरे दल सहित गिरतार किए जाकर मुलतान की कुख्यात सैण्ट्रल जेल में भेज दिए गए। वहां से वे लगभग एक वर्ष बाद गांधी-इरविन पैक्ट होने पर जेल से मुक्त हुए। मुलतान जेल में रहते हुए अपने दल के साथी अनपढ़ देहाती आंदोलनकारियों का उच्छृंखल व्यवहार देखकर स्वामी जी की देश-सेवा विषयक विचारधारा में परिवर्तन आ गया। उन्होंने अनुभव किया कि जब तक देहात के लोगों को शिक्षित नहीं किया जाता तब तक उन्हें न तो स्वराज्य का महत्व समझ में आएगा और न ही वे देश के स्वतंत्र होने पर अच्छे नागरिक होने का कर्त्तव्य पालन कर सकेंगे। इस कारण उसी समय से उन्होंने देहात में शिक्षा-प्रचार को अपना एक मात्र लक्ष्य बना लिया।